रिश्तो की डोर (कविता) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु 22-May-2024
रिश्तों की डोर(कविता) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु
रिश्तों की डोर जो मिठास लिए रहती है, अपनेपन का सदा एहसास लिए रहती है। अनजानों को भी यह अपना बना लेती है, अपनापन दम न तोड़े इसलिए बहुत कुछ सहती है।
यह डोर कभी कमज़ोर होने ना पाए, प्यार और दुलार कहीं खोने न पाए। दूर रहकर भी हम याद सदा आएँ, कुछ ऐसा ही मजबूत सौगात लिए रहती है।
इस डोर में भूले से कभी गांँठ ना पड़ जाए, लाख जतन कर लें पर साफ़ ना हो पाए। दूर जो गया तो फिर वो पास ना हो पाए, ऐसा मज़बूत डोर ख़ास लिए रहती है।
यह रिश्तों की डोर ही है जो गैरों को भी अपनाती है, जीव मात्र के अंतर्मन में ममता का भाव जागती है। मैं ना हम होकर यह जीना सिखलाती है, दिखावे से दूर सच्चा प्यार लिए रहती है।
रिश्तों की मज़बूत डोर अब है खो गई, फूलों के रूप में कांँटों को बो गई। प्यार को दफ़न कर क्रूरता के संग हो गई, आज डोर यह कमज़ोर हो इजलास लिए रहती है।
रिश्तो की डोर आज मजबूती मांग रही, अपना बनकर यह खींच अपनों का टांँग रही। अजीज तुम बड़े हो मेरे इसका कर स्वांँग रही, रिश्तों की डोर आज विपर्यास किए रहती है।
साधना शाही, वाराणसी
hema mohril
23-May-2024 10:45 AM
Amazing
Reply
Gunjan Kamal
22-May-2024 08:20 PM
बहुत खूब
Reply